महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को हुआ था। अगले कुछ दिनों में हम जनके जीवन से जुड़ी गौरवशाली गाथा को जानने का प्रयास करेंगे।

उनका आर्दश था, की बापा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकायेगा और इस प्रण को उन्होंने जीवनपर्यन्त निभाया। स्वदेशप्रेम, स्वतंत्रता और स्वदेशाभिमान के उनके मूलमन्त्र आज भी भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं।

उनकी यशगान में लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ –

सुखहिल स्याल समाज, हिंदू अकबर वस हुआ।

रोसीलो मृगराज, पजै न राण प्रतापसी।।

अर्थात, अपने सुख के निमित्त गीदड़ों के झुंड के समान हिन्दू राजा अकबर के अधीन हो गये, परन्तु खीझे हुए सिंह समान महाराणा प्रताप उससे कभी नहीं दबा।

मेवाड़ का इतिहास अति प्राचीन काल से ही बहुत गौरवशाली रहा है। इस वंश में बापा रावल, शूरवीर हमीर, महाराणा कुंभा, राणा सांगा एवं महाराणा प्रताप जैसे यशस्वी सम्राटो ने जन्म लिया।

अकबर ने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चलते सन 1567 में एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय वहाँ के राजा उदयसिंह थे। उन्होंने अकबर से सीधे युद्ध ना करते हुए पहाड़ी क्षेत्र में किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाने में ही अपना हित समझा। पीछे रह गए उनके छोड़े हुए 8000 सैनिक एव 30,000 नगरवासी।

कई महीनों की घेराबंदी के बाद अंततः अकबर चित्तौड़ में प्रवेश पाने में सफल हुआ। उसे वहाँ न तो उदयसिंह मिले और ना ही राज्य का खजाना, उलटे पिछले कई महीनों से चल रहे संघर्ष के परिणामस्वरूप उसे जान-माल की भारी क्षति उठानी पड़ी।

अकबर की महानता:

अकबर महान कहे जाने वाले इस मुगल सम्राट ने अपनी खीज मिटाने के लिए निस्सहाय नागरिकों के कत्लेआम का हुक्म जारी कर दिया। उन निहत्थों पर मुगल सेना टूट पड़ी और देखते ही देखते लाशों के ढ़ेर लग गए। कैसी विडंबना है कि तीस हजार निर्दोष नागरिकों के  अमानवीय हत्याकांड के जिम्मेदार अकबर को हमारे इतिहास में महान शासक के रूप में जाना जाता है ?।

युवा महाराणा प्रताप को इस समाचार से अत्यंत शोक पहुंचा। अकबर के प्रति उनके मन में कटुता का बीज कदाचित इसी दिन से पड़ गया।

आलेख क्रमांक 1…

उदयसिंह का निर्णय – कायरता या दूरदर्शिता?:

अगर दुश्मन की ताकत बहुत ज्यादा हो, प्राणपण से जूझने पर भी परिणाम मर-मिटना और पराजय ही हो तो अपने जन- धन के सारे संसाधन ऐसे युद्ध में झोंक देना दूरदर्शिता का परिचायक नहीं होता।

चितौड़ का दुर्ग सुरक्षा की दृष्टि से बहुत अनुकूल कभी नहीं रहा। उसके चारों ओर का समतल भूभाग शत्रु सेना को पड़ाव डालने और घेरकर बसे रहने की पूरी सुविधा देता है। और एक बार नाकेबंदी हो जाने के बाद बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती और अंदर एकत्रित रसद खत्म हो जाने के बाद रक्षक सेना को बाहर आकर शत्रु का सामना करना पड़ता है।

अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध इसी प्रकार लड़ते हुए वीर राजपूत मारे गए और महारानी पद्मिनी को हजारों स्त्रियों के साथ अपने सम्मान की रक्षा हेतु जौहर करना पड़ा। दूसरी बार जब गुजरात के बहादुरशाह ने चितौड़गढ़ पर आक्रमण किया, तब भी इसी घटना की पुनरावृत्ति हुई और रानी कर्मवती हजारों स्त्रियों के साथ जौहर की ज्वाला में भस्म हो गयी। अब उदयसिंह के समय यह  तीसरा अवसर था।

उदयसिंह का किला छोड़ देने का निर्णय कुछ इतिहासकारों को भले ही कायरतापूर्ण लगे, लेकिन दूसरे पहलू से देखने पर यह एक व्यावहारिक समझदारी ही प्रतीत होता है। सारी युवा पीढ़ी का बलिदान देकर पराजय का मुँह देखने से तो पीछे हट जाना, और जीवित रहते हुए पुनः अपनी शक्ति को एकजुट करना अधिक उचित है और शायद उदयसिंह ने वही किया।

आज का लेख मैं एक प्रश्न पूछते हुए यहीं समाप्त करूँगा –

प्रश्न: दो सेनाओं के बीच होने वाले युद्ध में ईश्वर किसकी तरफ होते हैं?

आलेख क्रमांक 2…

युद्ध में संसाधन और उन्नत हथियारों का बहुत महत्त्व होता है। ईश्वर सदा अधिक विशाल और अधिक शक्तिशाली सेना की तरफ ही रहते हैं। रामायण और महाभारत के युद्ध अपवाद हो सकते हैं, क्योंकि उनमें ईश्वर ने स्वयं भाग लिया था। अन्यथा उपरोक्त कथन ही प्रमाणित होते देखा गया है।

राजपूतों की परम्परा यही रही थी कि अपने से संख्या में शत्रु सेना चाहे कितनी ही बड़ी क्यों ना हो, वे उस पर टूट पड़ते थे और जब तक एक भी वीर जीवित रहता था, वह शत्रु सेना को आगे बढ़ने से रोकने का भरपूर प्रयास करता था। पराजित होने पर पूरी एक युवा पीढ़ी बलिदान हो चुकी होती थी। इसके बाद दूसरी पीढ़ी के युवा होने तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी।

जो लड़ता है, एवं अपनी हार निश्चित देखकर युद्धक्षेत्र से भाग खड़ा होता है, वह फिर कभी शत्रु का सामना करने के लिए जीवित रहता है। लेकिन जो शत्रु का पलड़ा भारी होने पर भी पीछे नहीं हटता और कट मरता है, वह कभी अपनी हार का बदला लेने के लिए फिर खड़ा नहीं हो पाता। राजपूताने का इतिहास ऐसी शौर्य गाथाओं से भरा पड़ा है। अब समय था इस रणनीति को बदलने का।

आलेख क्रमांक 3…

उदयसिंह की मृत्यु के पश्चात सिंहासन की बागडोर उनके ज्येष्ठ पुत्र प्रताप के हाथों में आ गयी। सच कहा जाए तो यह स्वर्णमुकुट नहीं, काँटों भरा ताज था। महाराणा सांगा के समय का विशाल एवं समृद्धशाली मेवाड़ अब सिकुड़ कर एक छोटे से भूभाग तक सीमित हो चुका था। चितौड़ और अजमेर के बीच का सारा मैदानी भाग मुगलों के कब्जे में था। वहाँ की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई थी और निरन्तर चल रहे युद्धों के कारण प्रजा की स्थिति अत्यंत दयनीय हो चुकी थी।

अकबर की महत्वाकांक्षा जल्द से जल्द सारा मेवाड़ अपने अधीन करने की थी। उसकी अपार शक्ति के पीछे ना सिर्फ एक विशाल सेना और प्रचुर मात्रा में संसाधनों की उपलब्धता थी , बल्कि उसकी भेदनीति भी उतनी ही प्रभावशाली थी। उसने कई राजपूत घरानों को प्रलोभन देकर अपने साथ मिला लिया था। इनमें सबसे पहला और महत्वपूर्ण था आमेर का घराना, जिसके राजा भगवानदास ने न केवल अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली, बल्कि अपनी बहन जोधाबाई का विवाह भी उससे कर दिया। साथ ही अपने पुत्र मानसिंह को उसकी सेवा में मुगल दरबार भेज दिया। यही रीत आगे चल कर और भी कई राजपूत राजाओं ने निभाई।

महाराणा प्रताप को न ही यह पराधीनता स्वीकार थी और न ही अपनी बहन बेटियों का अकबर के हरम में जाना। अपनी स्वाधीनता के लिए वह कोई भी कीमत चुकाने को तैयार थे। यही कारण था कि अकबर के अधीन हो गए राजपूतों के मध्य भी प्रताप का बहुत आदर था।

महाराणा प्रताप को ज्ञात था कि देर सवेर उन्हें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा हेतु मुगलों की बड़ी सेना का सामना करना होगा। उन्होंने आर्थिक विपन्नता की स्थिति के बावजूद सेना के पुनर्गठन और सशक्तिकरण के प्रयास शुरू कर दिये। इसके लिए उन्होंने नैतिक बल का भी उपयोग किया और यहीं पर ‘यथा राजा तथा प्रजा‘  वाली बात चरितार्थ हुई।

उन्होंने प्रदेश की रक्षा के लिए जन जन का आह्वान किया और मेवाड़ के पूर्णतः स्वतंत्र न होने तक हर प्रकार के राजसी सुख-भोग से दूर रहने की प्रतिज्ञा कर ली। अब न सोने चांदी के पात्रों में राजसी व्यंजनों का आनन्द लिया जाएगा और न मखमली सेज पर कभी सोया जायेगा। इसका प्रजा पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा। उनके मन में प्रताप की वीरता, विनम्रता और स्वतंत्रता के प्रति अटूट निष्ठा को लेकर जो आदरभाव था वह अब जन भागीदारी में परिवर्तित हो गया। यही प्रताप की एक अहम शक्ति थी।

आलेख क्रमांक 4…

अकबर के राज्यकाल में मुगल साम्राज्य दूर-दूर तक फैल चुका था। ऐसे में छोटे से मेवाड़ का अधीनता स्वीकार न करना उसे बहुत अखर रहा था। अब यह उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुका था। उसे उम्मीद थी कि उसकी शक्ति से प्रभावित होकर राणा प्रताप स्वयं उसके पास संधि प्रस्ताव भेज देंगे। लेकिन ऐसा होना सम्भव नहीं था।

अकबर के सामने दो विकल्प थे – सीधे मेवाड़ पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लेना या फिर राणा से संधि कर उसे अपने अधीन कर लेना। वह प्रताप से सीधी टक्कर से बचना चाहता था क्योंकि चित्तोड़ विजय का कड़वा स्वाद वह भूला न था। मुठ्ठी भर राजपूत जिस वीरता से लड़े और उसकी सेना को जान माल की जो क्षति पहुंचाई उसकी अकबर ने कभी कल्पना भी नहीं करी थी। और अंत में हाथ क्या लगा – एक  खाली दुर्ग, चिता की राख और 30 हजार निरीह नागरिक, जिनका नरंसहार कर उसने अपनी खीज मिटाई।

अकबर यह भी भलीभांति जानता था कि उसके अधीन राजपूतों के मन में प्रताप और मेवाड़ राजघराने के लिए बहुत आदर भाव है। मुगलों की विशाल शक्ति का सामना करने में असमर्थ होने के कारण वे अकबर के अधीन तो हो गए थे, लेकिन स्वतंत्रता के प्रतिबद्ध विरशिरोमणि प्रताप का वे ह्रदय से सम्मान करते थे। मेवाड़ पर चढ़ाई कर वह इनमें असंतोष की भावना नहीं पैदा करना चाहता था।

इधर महाराणा प्रताप के सामने भी दो ही विकल्प थे – या तो वे अन्य राजपूतों की तरह अकबर से संधि कर उसकी अधीनता स्वीकार कर लेते या स्वतंत्र रह कर संघर्ष का मार्ग अपनाते। उन्होंने अकेले निर्णय लेने के बजाय अपने सामंतो-सरदारों, सेनापतियों, सहयोगी राव-रावलों और प्रजाजनों का मन टटोला। उनके सैनिक ही नहीं साधारण जन का भी यही सोचना था की पराधीनता स्वीकार करने की बजाय मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना श्रेयस्कर है। त्याग, बलिदान एवं आत्मोत्सर्ग की भावना रक्त बनकर प्रत्येक मेवाड़वासी की रगों में प्रवाहित हो रही थी। जिसने प्रताप का उत्साह दोगुना कर दिया। निर्णय हो चुका था। अब केवल यथासम्भव तैयारी का समय था।

आलेख क्रमांक 5…

छोटे से मेवाड़ का विशाल मुगल साम्राज्य के आगे न झुकना अकबर को बुरी तरह से अखर रहा था। महाराणा प्रताप के राज्याभिषेक के छह माह के भीतर ही उसने पहला संधि प्रस्ताव भेज दिया। उसके लिए अकबर ने अपने विश्वासपात्र एवं बोलचाल की कला में माहिर जलाल खाँ कोरची को चुना। उसके असफल रहने के पश्चात सर्वप्रथम मानसिंह को, फिर उसके पिता भगवानदास एवं अंत में नीतिकुशल राजा टोडरमल को भेजा। जैसा कि अपेक्षित था सबको असफलता ही हाथ लगी। महाराणा प्रताप का एक ही तर्क था – “मेवाड़ के असली शासक तो भगवान एकलिंगजी है, मैं तो केवल उनका सेवक मात्र हूँ। जब तक एकलिंगजी का आदेश न हो मैं कोई निर्णय नहीं ले सकता”। इस बात का अभिप्राय स्पष्ट था – महाराणा प्रताप और मेवाड़ कभी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। अपनी स्वतंत्रता उनके लिये सर्वोपरि थी।

भावी युद्ध की आशंका को देखते हुए प्रताप ने बिना समय गवाए सैन्य तैयारियां शुरू कर दीं। अपना शस्त्रागार और राजकोष गोगुंदा से हटा कर कुम्भलगढ़ एवं आवलगढ़ के सुरक्षित दुर्गों में भेज दिया। इन दोनों गढ़ों में पर्याप्त खाद्यान्न भंडार जमा कर लिए। मेवाड़ के लुहार भाले, तलवारें, धनुष बाण बनाने में निपुण  थे – उन्हें रात दिन इस काम में लगा दिया। जो युवा देश की रक्षा हेतु आगे आना चाहते थे उन्हें शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण देकर सेना में भर्ती कर लिया गया। वैसे भी मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देना उनके रक्त में शामिल था। शत्रु को किसी भी तरह का खाद्यान्न उपलब्ध न होने देने के लिए उन्होंने आदेश जारी कर किया कि मैदानी क्षेत्र में कोई खेती नहीं कि जाएगी।

मेवाड़ के दुर्गम पर्वतीय प्रदेश, सँकरी घाटियाँ, दूर-दूर तक फैले जंगल और वर्षा ऋतु में उफनती नदियां भी बाहरी आक्रमणों से मेवाड़ की रक्षा करने में बहुत सहायक सिद्ध होती थी। यहाँ के राजपूतों का वीरता में तो कोई सानी नहीं था, लेकिन प्राकृतिक अनुकूलता के चलते उनकी एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी भी दर्रों और घाटियों में मोरचे जमाकर शत्रु की  को चुनौती देने में सक्षम थी। अकबर को इस बात की भलीभांति समझ थी कि मेवाड़ के दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों में राजपूतों से युद्ध करना कितना महंगा पड़ सकता है। उसके सैनिक अगर गलत रास्ते भर भटक गए तो वनवासी भीलों के विष बाणों से एक भी नहीं बचेगा।

आलेख क्रमांक 6…

राणा प्रताप को पता चल चुका था कि मानसिंह के नेतृत्व में मुगलों की एक बड़ी सेना मेवाड़ पर धावा बोलने वाली है। अब समय था युद्धनीति बनाने का। मंत्रणा सभा में दो मत उभर कर सामने आये – जिसमे पहला मत था परम्परागत शैली का अनुसरण करते हुए खुल्लमखुल्ला शत्रु सेना पर पूरी शक्ति से टूट पड़ने का, और दूसरा मत था छापामार पद्धति का अनुसरण करते हुए दुर्गम एवं सँकरे पर्वतीय क्षेत्रों में मोर्चाबन्दी करने का।

मुगल सेना की प्रमुख शक्ति उसका विशाल हाथीदल और तोपखाना थे। लेकिन दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में दोनों ही चीजें काम नहीं आती थी। जो कुछ वर्षों से चला आ रहा हो, उसके विपरीत कुछ करने लिए सामान्यजन तो क्या विशिष्ट एवं अनुभवी लोग भी आसानी से तैयार नहीं होते। महाराणा प्रताप को भी कुछ अति उत्साही सामन्तों का विरोध झेलना पड़ा जिन्हें कन्दराओं की ओट लेकर लड़ने में वीरता नजर नहीं आती थी। परन्तु सारी स्थिति पर पुनर्विचार करने के बाद महाराणा ने हल्दीघाटी में छापामार शैली में लड़ने का निर्णय लिया।

उधर मुगल सेना की रणनीति यही तय हुई कि किसी भी तरह राजपूतों को उकसा कर मैदानी भाग में लाया जाए और फिर आमने सामने की लड़ाई में उन्हें परास्त कर दिया जाये। संख्याबल में वे राजपूतों से कहीं अधिक थे जिसका पूरा लाभ उन्हें मैदानी लड़ाई में ही मिल सकता था। साथ ही उनकी रणनीति में एक और पहलू भी था – महाराणा प्रताप को घात लगाकर जल्द से जल्द समाप्त कर दिया जाए जिससे उनकी सेना हताश होकर अपनी पराजय स्वीकार कर ले।

आलेख क्रमांक 7…

मानसिंह के रणकौशल पर तो अकबर को पूरा भरोसा था, लेकिन उसके एक राजपूत होते हुए दूसरे राजपूत से लड़ते समय उस पर पूरा भरोसा करना उसे उचित नहीं लगा। अतः उसने कुछ चुने हुए मुसलमान सेनानियों जैसे आसफ खान,  गाजी खान, सैयद हमीम बरहा इत्यादि को उसके साथ भेज दिया। उधर राणा प्रताप की सेना में रामसिंह तंवर, झाला मान, हाकिम खाँ सुर, भील सरदार पुंजा जैसे वीर योद्धा थे।

हल्दीघाटी से कुछ ही दूर खमनोर के निकट 21 जून, 1576 को दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। मानसिंह अच्छी तरह से जानता था कि दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में प्रताप की राजपूत सेना से लड़ना अत्यंत कठिन काम है। वह उन्हें उकसाकर मैदानी क्षेत्र में लाना चाहता था। वह हल्दीघाटी के सँकरे मुहाने पर आकर रुक गया। यह एक छोटा मैदान था जिसे बादशाह बाग कहते हैं। उसे आशा थी कि शत्रु को सामने देख राजपूत सेना जोश में आये बिना नहीं रह पाएगी और पहाड़ी दर्रों की अपनी मजबूत मोर्चाबन्दी को छोड़ कर उसकी सेना पर आक्रमण करने की गलती अवश्य करेगी।

मानसिंह अपनी चाल में सफल रहा। राजपूतों से अब और इंतजार न हो सका और उनके हरावल दस्ते (सेना का अग्रिम भाग) ने घाटी से बाहर निकलकर मुगल सेना की आगे की रक्षा पंक्ति पर धावा बोल दिया। बादशाह बाग का मैदान अपेक्षाकृत समतल था लेकिन उसके आगे की जमीन पथरीली और ऊबड़ खाबड़ थी, जिस पर युद्ध करने के मुगल सैनिक अभ्यस्त नहीं थे। उसके बहुत से सैनिक तो पथरीली धरती पर संतुलन कायम न रख पाने के कारण मारे गए।

महाराणा प्रताप के हरावल दस्ते का आक्रमण इतना तीव्र था कि देखते ही देखते मुगल सेना के पैर उखड़ गए।  मुगल सेना के हरावल दस्ते की पूरी तौर पर हार हुई। यह देखकर राजपूत सेना का उत्साह दोगुना हो गया। राणा प्रताप अपनी हरावल सेना की सफलता से उत्साहित होकर अनुभवी सेनापतियों की बनाई सारी रणनीति को भूल गए। वह पहाड़ी क्षेत्रों के सुरक्षित मोर्चों को छोड़कर अपनी समस्त सेना के साथ मैदानी भाग में आ गये। यह एक भारी भूल थी ? जो भागती हुई शत्रु सेना के लिए वरदान साबित हुई।

आलेख क्रमांक 8…

महाराणा प्रताप की सेना सुरक्षित ठिकानों से बाहर आते ही बादशाह बाग की समतल भूमि पर मोरचे जमाए खड़ी मुगल  वाहिनी पर टूट पड़ी। हालांकि यह स्थान मुगलों के लिए अनुकूल था, फिर भी प्रताप की सेना का आक्रमण इतना तीव्र था कि उनके लिए उसके सामने टिक पाना दुष्कर हो गया। मुगल सैनिक घबराकर भेड़ों के झुण्ड की तरह भागने लगे, सेना की कुछ दुकड़िया तो जान बचाकर बनास नदी को पार कर 5-6 कोस तक भागती चली गयी (1 कोस = 3 किलोमीटर). ऐसा लगता था कि राजपूतों की जीत निश्चित है।

इस युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी एवं मुगल हरावल दस्ते के एक प्रमुख सिपाही कादिर बदायूनी (प्रसिद्ध पुस्तक मुंतखाब-उत-तवारीख के लेखक – इस किताब में उन्होंने हुमायूं और अकबर के शासन काल को वर्णित किया है) ने मुगल हरावल दस्ते के सेनापति आसफ खान से पूछा – “इस भगदड़ वाली स्थिति में हम अपने और शत्रु के राजपूतों की पहचान कैसे कर सकते हैं?”; आसफ खान का उत्तर था – “तुम केवल तीर चलाते जाओ, चाहे जिस पक्ष का राजपूत मारा जाए, लाभ तो इस्लाम का ही होगा”। हम तीर चलाते रहे और उस भीड़ में एक भी बाण खाली नहीं गया। उसने बाद में लिखा – मुझे बड़ी संख्या में काफिरों (हिन्दुओं) को मारने का सौभाग्य मिला। कैसा दुर्भाग्य रहा है इस माटी का? एक तरफ मुगल सेना के मुसलमान सिपहसालार का अपने उद्देश्य के प्रति स्पष्ट मत और दूसरी ओर अपने ही भाईयों के खून के प्यासे, दो अलग-अलग खेमों में बंटे हुए राजपूत ?

कादिर बदायूनी के इस अतिश्योक्ति भरे कथन में कितनी सच्चाई थी यह एक अलग विषय है, लेकिन उस समय की वास्तविकता तो यही थी कि खुद आसफ खान को अपनी जान बचाकर सेना की दाहिनी इकाई में सैय्यदों की शरण लेनी पड़ी थी।

अपनी सेना की दुर्दशा देख चंदावल दस्ते (सेना की पिछली इकाई) का प्रमुख मिहतर खान अपनी टुकड़ी को लेकर आगे आ गया। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि भागती हुई फौज को रोका न गया तो जीत असम्भव है। उसने अपने अनुभव का उपयोग करते हुए ढोल बजवाकर झूठी उदघोषणा करवा दी कि स्वयं शहंशाह अकबर एक बड़ी फौज के साथ युद्ध में पहुंच चुके हैं। यह सुन कर मुगलों की भागती सेना की जान में जान आ गयी। वहीं दूसरी ओर इस घोषणा का ठीक विपरीत प्रभाव राजपूत सेना पर पड़ा।

आलेख क्रमांक 9…

युद्व अब पूर्णतया खुले मैदान में आ पहुंचा था। मुगल सेना के पैर जमने लगे थे, और मिहतर खान के ताजादम दस्ते के आक्रमण का असर दिखाई देने लगा था। ऊपर से तोपों के गोले भी प्रताप की सेना पर कहर ढा रहे थे। मुगलों को भी भीलों की अचूक तीरंदाजी ने कम बेहाल नहीं किया, लेकिन अब उनके साथ पहाड़ो का सुरक्षा कवच नहीं था।

युद्ध में स्थिरता आती देख मानसिंह ने दूसरी चाल चल दी। युद्ध मे उसके सेनापतित्व के सम्बंध में मुल्ला शीरी का वह कथन जिसमें उसने कहा था की हिन्दू इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार खींचता है चरितार्थ हुआ। वह अपने हाथी को आगे बढ़ाता हुआ राणा प्रताप के सामने जा पहुंचा। जैसा कि उसे आशा थी  उसे देखते ही राणा प्रताप का खून खौल उठा। उन्होंने अपने स्वामिभक्त घोड़े चेतक के दोनों पैर मानसिंह के हाथी पर चढ़ा दिये और अपने भाले से उस पर जोरदार प्रहार किया। दुर्भाग्यवश भाला मानसिंह को नहीं उसके महावत को लगा और उसी क्षण उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लेकिन इस सबके बीच हाथी की सूंड में बँधी दोधारी तलवार से चेतक का एक पैर बुरी तरह घायल हो गया। बिना महावत का हाथी चिंघाड़ता हुआ भाग खड़ा हुआ और उसके साथ ही मानसिंह भी।

सब कुछ पूर्ण नियोजित रणनीति के अनुसार घट रहा था। इस अवसर की ताक में बैठे कुछ चुने हुए सैनिकों के अंगरक्षक दस्ते ने महाराणा प्रताप को चारों ओर से घेर लिया। महाराणा बहुत वीरता से लड़े लेकिन खुद भी घायल हो गये। इसी समय हाकिम खाँ सूर और झाला मान की दृष्टि राणा प्रताप पर पड़ी, अपने महाराणा को संकट में देख वे उनकी मदद के लिए दौड़ पड़े।

अब समय था एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय का जिस पर मेवाड़ का आगे आने वाला भविष्य निर्भर करता था। झाला मान को यह अनुभव हो गया कि वहाँ से लड़ कर नहीं बचा जा सकता तो उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से राणा प्रताप से आग्रह किया – “है अन्नदाता, आप अपना छत्र और पताका मुझे दे दें और युद्ध क्षेत्र से सुरक्षित निकल जाएं”। महाराणा प्रताप को यह कदम कायरतापूर्ण लगा और उन्होंने मना कर दिया। इस पर झाला मान ने उनसे कहा – “मेवाड़ को आपकी आवश्यकता है। अपने लिए नहीं तो इस मातृभूमि की स्वतंत्रता के संग्राम को जारी रखने के लिये आपका जीवित रहना आवश्यक है। झाला मान एक और मिल सकता है लेकिन महाराणा प्रताप नहीं। मुझे इस माँ समान पुण्य माटी के लिये अपने प्राण त्यागने का अवसर मिला है, मेरे लिये इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है, प्रणाम राणा – आप कृपा करके यहाँ से निकल जाइये”।

इसके बाद उन्होंने राणा प्रताप को कुछ और कहने का अवसर नहीं दिया और स्वयं ही उनकी पताका और छत्र को ले लिया। प्रताप ने घायल चेतक को मोड़ा, कृतज्ञता से एक बार धरती माँ के वीर सपूत झाला मान को देखा और निराश भाव से युद्धभूमि से निकल पड़े।

आलेख क्रमांक 10…

मुगल सैनिक झाला मान को महाराणा समझ उन पर टूट पड़े। झाला बहुत वीरता से लड़े, लेकिन मुगलों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण अंततः वीरगति को प्राप्त हुए। उनके साथ ही महाराणा के छत्र और पताका का भी पतन हो गया। झाला मान का यह बलिदान मेवाड़ की तारीख में हमेशा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया।

ध्वज और पताका के साथ ही अश्वारोही को गिरता देख राजपूत सैनिकों को लगा कि महाराणा प्रताप युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गये हैं। कुछ ने प्रताप को चेतक पर जाते देख लिया था। दोनों ही कारणों ने मेवाड़ की सेना को हतोत्साहित कर दिया और वह युद्धभूमि से पीछे हटने लगी। लेकिन थकी-हारी मुगल सेना में इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि पीछे हटती राजपूत सेना का पीछा कर सके। मानसिंह को पता था कि पीछे हटते हुए राजपूत पहाड़ी मोर्चों की सुरक्षा में शरण लेंगे – ऐसे में अपनी पस्त हो चुकी सेना को उनके पीछे भेजना साक्षात यमराज को दावत देना था। उसने अपना और अधिक विध्वंस करवाना उचित नहीं लगा।

महाराणा प्रताप और चेतक दोनों ही लहूलुहान अवस्था में थे। दो मुगल सैनिकों ने झाला मान को उनकी छत्र और पताका लेते हुए और उन्हें युद्व भूमि से लौटते हुए देख लिया था। वह इस आशा से की अगर महाराणा को मार सके तो अकबर से बहुत बड़ा इनाम मिलेगा उनके पीछे लग गये।

महाराणा प्रताप का छोटा भाई शक्तिसिंह, महाराणा प्रताप के साथ हुए एक विवाद के चलते अकबर से जा मिला था। मानसिंह उसे विशेष तौर पर इस युद्ध में अपने साथ लाया था। लेकिन लड़ाई के मैदान में आकर शक्तिसिंह को बहुत आत्मग्लानि हो रही थी। मेवाड़ जो उसकी भी जन्मभूमि थी, की स्वाधीनता के लिये लड़ने वाले अपने बड़े भाई के विरुद्ध वह शस्त्र कैसे उठा सकता था? उसने प्रताप को घायलावस्था में पीछे हटते और मुगल सैनिकों को उनके पीछे जाते देख लिया। मातृभूमि की और अधिक अवहेलना करना उसके लिये असहय हो गया। उसने तुरंत अपना घोड़ा उनके पीछे दौड़ाया। जल्द ही शक्तिसिंह मुगल सैनिकों के पास जा पहुंचा। उनसे कुछ पूछताछ के बहाने बात शुरू की और असावधानी की अवस्था में तेजी से वार कर एक मुगल सैनिक का सिर धड़ से अलग कर दिया। दूसरे सैनिक ने स्थिति को भांपते हुए शक्तिसिंह पर आक्रमण कर दिया, लेकिन दोनों के युद्व कौशल में कोई समानता नहीं थी – कुछ क्षण बाद ही उसका कटा हुआ सिर भी मिट्टी में सना पड़ा था।

शक्तिसिंह ने महाराणा को सम्बोधित करते हुए कहा – “ओ नीले घोड़े के सवार ठहर जा”। उसने प्रताप के पास जाकर अपनी तलवार उनके चरणों में रख दी। बरसों से बिछड़े दोनों भाई अश्रुधार के बीच गले मिले। महाराणा के प्रिय घोड़े चेतक ने वहीं अपने प्राण त्याग दिये – स्वामिभक्ति का यह एक अनूठा उदाहरण था। उसने अपने प्राण देकर अपने स्वामी के प्राणों की रक्षा करी। धन्य है मेवाड़ की पुण्यभूमि जहां मनुष्य ही नहीं पशु भी माटी का ऋण चुकाने के लिए जीवन बलिदान कर सकते हैं। शक्तिसिंह ने अपना घोड़ा महाराणा प्रताप को दे दिया और उन्हें वहां से शीघ्र ही निकल जाने का आग्रह किया।

आलेख क्रमांक 11…

प्रश्न: हल्दीघाटी के युद्व का क्या परिणाम रहा?

उत्तर: हल्दीघाटी के युद्व को निर्णायक नहीं कहा जा सकता। महाराणा प्रताप की राजपूत सेना ने अपने पहले ही आक्रमण में मुगल सेना को तितर बितर कर कोसों तक भगा दिया था, लेकिन बाद में अकबर के आने का शोर एवं मुगल चन्दावल दस्ते के सुनियोजित पलटवार ने राजपूत सेना को पीछे हटने पर विवश कर दिया था। अगर सभी पहलुओं को ध्यान में रख विश्लेषण करा जाए तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इस युद्ध में राणा प्रताप की ही प्रबलता रही

मुगलों ने यह युद्ध दो लक्ष्यों को लेकर लड़ा था –

  1. महाराणा प्रताप को जीवित या मृत अकबर के सामने पेश करने के लिए
  2. मेवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिलाने के लिए

ये दोनों ही उद्देश्य पूरे नहीं हो सके। उल्टा जान माल की बहुत हानि उठानी पड़ी। सामन्यतया युद्व से विजय प्राप्त कर लौटे प्रधान सेनापति का स्वागत होता है, उसे पुरस्कृत किया जाता है। लेकिन अकबर ने तो नाराज होकर मानसिंह और आसफ खान से मिलने से भी मना कर दिया और दंडस्वरूप दो साल तक उनके शाही दरबार मे आने पर पाबंदी लगा दी। क्या यह युद्ध में विजय का सूचक है?

पीछे हटने के बाद भी राजपूतों ने हार नहीं मानी एवं शीघ्र ही पुनर्गठित होकर संघर्ष जारी रखा – हल्दीघाटी का युद्ध तो उस अनवरत संघर्ष की शुरुआत मात्र थी। महाराणा प्रताप ने कोल्यारी गाँव मे अपना पड़ाव डाला। वहीं उन्होंने घायल सैनिकों की चिकित्सा की व्यवस्था करी। उन्होंने भील सरदारों से मिलकर उनको धन्यवाद दिया और युद्ध मे उनके अभूतपूर्व साहस की मुक्त कंठ से प्रशंसा करी। महाराणा प्रताप के लिए यह युद्ध का आरंभ था समाप्ति नहीं।

आलेख क्रमांक 12…

हल्दीघाटी के बाद मानसिंह गोगून्दा की तरफ बढ़ा। उसे आशा थी कि वह महाराणा प्रताप को वहाँ पकड़ लेगा। लेकिन प्रताप को उसके आने की खबर पहले से ही लग गयी और उन्होंने गोगून्दा खाली कर दिया। मानसिंह को सपने में भी यह अनुमान नहीं था कि उसकी सेना का वहाँ क्या हश्र होने वाला है। जब उसे वास्तविकता की अनुभूति हुई तो हल्दीघाटी विजय का झूठा ही सही, सारा नशा चूर हो गया।

गोगून्दा का अधिकांश भूभाग बंजर था, और बाकी बचा हिस्सा भी महाराणा प्रताप के आदेश से फूँक दिया गया। वहाँ जली हुई धरती पर अनाज का एक दाना भी उपलब्ध नहीं था और मुगलों की साथ लाई रसद भी समाप्त हो गयी। महाराणा प्रताप के छापेदार दस्तों ने बाहर से सामग्री मंगवाने के सारे मार्ग बंद कर दिये। मानसिंह को लगा कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद राजपूतों के हौसले पस्त हो चुके होंगे, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। महाराणा, उनके सामंतो और सैनिकों का उत्साह बहुत बढ़ गया था। उन्होंने हल्दीघाटी की गलती से सबक लेकर योजना बदल ली थी, और पुनः संगठित होकर छापामार युद्व आरम्भ कर दिया।

मुगल सेना को हमेशा यही भय बना रहता था कि राणा प्रताप की सेना घात लगाकर हमला कर देगी। एक तरफ मृत्यु का डर तो दूसरी ओर भूखे मरने की परिस्थिति। आसपास आम के पेड़ थे और गृष्म ऋतु में आम की पैदावार भी अच्छी हुई थी। सैनिकों ने कुछ दिन तक पके आम और जानवरों के माँस से गुजारा चलाया। जब पके आम खत्म हो गये तो भूख से बेहाल सिपाहियों ने कच्ची केरियाँ खानी शुरू कर दिया। कच्ची केरियाँ खाने के फलस्वरूप बहुत से सैनिक बीमार पड़ने लगे और सेना में बगावत की स्थिति खड़ी हो गयी। ऐसे में मानसिंह अपनी सेना लेकर वहाँ से जान बचा कर भाग खड़ा हुआ।

मुगल सेना के पीछे हटने के दो दिन भी नहीं बीते थे कि महाराणा प्रताप ने एक छोटे से प्रयास में ही गोगून्दा पर पुनः अधिकार कर लिया। अकबर को जब इसकी खबर मिली तो वह गुस्से से आग बबूला हो गया। लेकिन उसे पता नहीं था कि अभी तो यह शुरुआत भर ही थी, आगे तो बहुत अपमान झेलना बाकी था।

आलेख क्रमांक 13…

अकबर को लग रहा था कि जिस काम को बादशाह ही स्वयं कर सकता है, वह नौकरों से नहीं हो पायेगा। उसने एक बहुत बड़ी सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी।  विशाल मुगलवाहिनी के बीच अकबर के लिये एक अचूक सुरक्षाकवच बनाया गया। शीघ्र ही अकबर गोगून्दा पहुँच गया लेकिन महाराणा प्रताप को इसकी सूचना पहले से मिल गई थी। छापामार रणनीति पर चलते हुए उन्होंने गोगून्दा खाली कर दिया और अपनी सेना सहित पहाड़ी क्षेत्रों में चले गये।

गोगून्दा में पड़ाव डालने के पीछे अकबर का एक ही उद्देश्य था – राणा प्रताप को पकड़ना। इस काम के लिए सेना की दो टुकड़ियाँ बनाई गई – पहली राजा भगवान दास और दूसरी कुतबुद्दीन खाँ के नेतृत्व में। दोनों ही मेवाड़ की भौगोलिक स्थिति से परिचित थे – उन्होंने सैनिकों की छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बना कर विभिन्न दिशाओं में भेज दी। उन्हें आशा थी कि दो-चार दिनों में प्रताप मिल ही जायेंगे।

कई दुकड़ियाँ तो एक बार मुगल छावनी से निकलने के बाद फिर कभी लौटी ही नहीं, उनके सारे सिपाहियों को राजपूतों ने घात लगाकर मार दिया। वे बेचारे तो ये भी नहीं समझ पाये की छापामार कहाँ से आते हैं, और कहाँ अदृश्य हो जाते हैं। बहुत से मुगल सैनिक भीलों के विषबुझे तीरों से अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गये और कुछ घायलावस्था में लौट आये। लेकिन बाणों पर लगे विष का असर किसी उपचार से कम नहीं हुआ और घायल सैनिक विष के प्रभाव से नीले पड़ मरने लगे।

मुगल सैनिक मेवाड़ के जंगलों एवं पहाड़ियों की खाक छानते रहे लेकिन महाराणा प्रताप का कोई सुराग नहीं मिला। हाथ लगा तो कभी राजपूतों के अचानक किये गए हमले तो कभी भीलों के विषैले बाणों की वर्षा – जहाँ भी जाते, उन्हें लहूलुहान हालत में सिर पर पैर रख कर भागना पड़ता। अकबर राजा भगवानदास और कुतुबुद्दीन खाँ की विफलताओं की कहानियाँ सुन सुनकर तंग आ गया और अंततः उसने सारी कार्यवाही की बागडोर खुद ही सम्भालने का निर्णय किया। उसने जगह-जगह नाकेबंदी कर थाने स्थापित करे। वह जहाँ भी जाता अपने साथ वह एक भारी लाव-लश्कर लेकर चलता था। उसके मन में राणा प्रताप के अचानक आक्रमण का डर समाया हुआ था।  लेकिन राणा का तो आमने सामने की लड़ाई का कोई प्रयोजन था ही नहीं, वे तो मुगल सेना को छकाकर थका देना चाहते थे। अब अकबर भी हताश होने लगा था।

आलेख क्रमांक 14…

राणा प्रताप के आदेशानुसार शत्रुसेना के रहते किसी भी तरह की खेती करने पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध था। एक बार उनके पास किसी जगह खेती की शिकायत पहुँची तो उन्होंने कुँवर अमरसिंह को राजपूतों के एक दल जिसमें भील युवक भी थे के साथ कार्यवाही करने भेजा। योजना के अनुसार अमरसिंह अपने साथियों के साथ रात के अंधेरे में हथियार तान कर खड़े हो गए और 2-3 युवकों को फसल काटने को कहा। दूर पहरा दे रहे मुगल सिपाहियों को जैसे ही पता चला उन्होंने दौड़कर अपने थानेदार मुजाहिद खान को सूचित कर दिया। वह तुरंत घोड़े पर सवार होकर कुछ सैनिकों के साथ वहाँ पहुँचा ताकि फसल काटने वालों को दण्ड दे सके। वहाँ जाते ही उसकी सैन्य टुकड़ी का तीरों की बौछार से स्वागत हुआ। मुजाहिद खान कुछ संभल पाता इससे पहले ही एक तेज गति से फेका गया भाला उसके सीने पर लगा और शरीर के आर-पार हो गया। सैनिक अपने थानेदार को उठाने आगे बढ़े तो उन पर भी बाणवर्षा हो गयी। वे मुजाहिद खान को वहीं छोड़ कर अपनी जान बचाकर भाग गये।

भीलों ने सारी फसल लूट ली और खेती करने वाले किसान को मारकर उसकी लाश एक पेड़ पर टाँग दी। अकबर को इसकी खबर मिली तो वह सन्नाटे में आ गया। संदेश बड़ा स्पष्ट था – मेवाड़ में महाराणा प्रताप की आज्ञा चलती है , मुगल सम्राट अकबर की नहीं। इतनी बड़ी सेना होने के बाद भी उसकी नाक के नीचे एक थानेदार को मौत के घाट उतार दिया गया। उसका सारा आत्मविश्वास ही डोल गया। उसे अब मेवाड़ की खाक छानते छह महीने बीत गये थे – महाराणा प्रताप को पकड़ना तो दूर वह अपने सैनिकों पर होने वाले हमले भी नहीं रोक पाया था। राणा ने इस पूरी अवधि में अकबर की परवाह तक न की। आखिरकार उसने हतोत्साहित होकर लौट जाने का निर्णय लिया।

अकबर के लौटते ही राणा प्रताप ने अपनी गतिविधियाँ तेज कर दीं। एक के बाद एक मुगलों के थानों पर उनका अधिकार होता चला गया। छापामार हमलों से डरे-सहमे मुगल सैनिकों का हौसला पहले ही पस्त हो चुका था। महाराणा प्रताप ने गोगून्दा पर पुनः अधिकार कर लिया और स्वयं कुंभलगढ़ में रह कर राजकार्य चलाने लगे।

आलेख क्रमांक 15…

प्रताप के भाग्य में सुख-चैन इतनी सरलता से आना नहीं लिखा था। अकबर ने अपने जाने के बाद शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक बड़ी सेना मेवाड़ को कुचलने के लिए भेज दी। अकबर के आगे बड़ी-बड़ी डींगे हांकने वाले शाहबाज खाँ को मेवाड़ पहुँचकर पता चल गया कि वह कितने पानी में है। महाराणा प्रताप ने सीधे मुकाबले की रणनीति छोड़ दी थी – शाहबाज खाँ को खाली दुर्ग मिलते रहे और वह अकबर के आगे अपनी जीत का ढिंढोरा पिटता रहा। असल में तो उसने कोई युद्व नहीं जीता था, बस घोड़े दौड़ाकर दूरियां पार की थी।

राणा प्रताप को पकड़ने में असफल होने के कारण शाहबाज खाँ ने खीजवश मुगलों के अधिकार में आये क्षेत्रों में लूटपाट मचा दी और निर्दोष जनता पर तरह तरह के अमानवीय अत्याचार किये। आश्चर्य की कोई बात नहीं थी – यही सब तो इस्लामिक आक्रमणकारियों की विशेषता थी। उसके इन सब कृत्यों के विपरीत परिणाम ही सामने आये – मेवाड़ की प्रजा जो पहले से ही प्रताप का बहुत मान करती थी, की उनके प्रति निष्ठा और भी गहरी हो गयी। अन्त में उसे भी असफल होकर खाली हाथ ही लौटना पड़ा।

राजपूताने में एक जनश्रुति बहुत प्रसिद्ध है  – एक दिन अकबर ने बीकानेर के राजा रायसिंह के छोटे भाई पृथ्वीराज से, जो एक अच्छा कवि भी था से कहा, “प्रताप अब हमें बादशाह कहने लगा है और हमारी अधीनता स्वीकार करने पर उतारू हो गया है, तुम सही खबर मंगवाकर अर्ज करो”। इस पर पृथ्वीराज (जो प्रताप के बहुत बड़े प्रशंसक भी थे) ने दो दोहे लिखकर महाराणा के पास भेजे जिनका भावार्थ कुछ इस प्रकार था –

महाराणा प्रतापसिंह यदि अपने मुख से अकबर को बादशाह कहें, तो कदाचित कश्यप का पुत्र सूर्य पश्चिम में उग आवे – यह सर्वथा असम्भव है। है मेवाड़ के दीवान, आप ही कहें,मैं अपनी मूछों पर राजपूताने का ताव दूं, या अपनी तलवार से अपने शरीर पर ही प्रहार कर दूं?

महाराणा का उत्तर इस प्रकार था –

एकलिंगजी प्रतापसिंह के मुख से अकबर को बादशाह नहीं तुर्क ही कहलावेंगे और सूर्य का उदय जहाँ होता है, वहां ही पूर्व दिशा में होता रहेगा। है वीर राठौड़, जब तक प्रताप की तलवार यवनों के सिर पर है तब अपनी मूछों पर खुशी से ताव देते रहिये।

यह उत्तर पाकर पृथ्वीराज बहुत प्रसन्न हुआ और महाराणा की प्रशंसा में एक गीत लिख भेजा –

नर जेध निमाण निलजी नारी,

अकबर गाहक वट अबट।।

है राख्यो खत्री ध्रम राणे,

सारा ले धरतो संसारे।।

इस गीत का आशय था – जहाँ मानहीन पुरुष और निर्लज्ज स्त्रियां हैं, और अकबर जैसा ग्राहक है, उस बाजार में चितौड़ का स्वामी प्रतापसिंह रजपूती आन को कैसे बेचेगा? मुसलमानों के नौरोज के उत्सव में प्रत्येक व्यक्ति लुट गया, परन्तु हिन्दुओं का पति प्रतापसिंह उस बाजार में अपना क्षत्रियपन नहीं बेचता। महान शासक हम्मीर का वंशधर अकबर की लज्जाजनक दृष्टि को अपने ऊपर नहीं पड़ने देता। उसके लिये पराधीनता का सुख कदापि लाभदायक नहीं है। अपने पुरुषार्थ से उसने भाले के बल से क्षत्रिय धर्म को अचल रखा, जबकि अन्य क्षत्रियों ने अपना क्षत्रियत्व बेच डाला। अकबररूपी ठग भी एक दिन इस संसार से चला जायेगा और उसकी यह हाट भी उठ जायेगी, परन्तु संसार में यह बात अमर रह जायेगी की क्षत्रियों के धर्म में रहकर उस धर्म को केवल राणा प्रतापसिंह ने ही निभाया।

धन्य है मेवाड़ की माटी जहाँ महाराणा प्रताप जैसे वीर योद्धा ने जन्म लिया!

आलेख क्रमांक 16…

मेवाड़ की ख्याति में अद्धितीय राजभक्ति के कई उदाहरण हैं, जिनमें से भामाशाह का उल्लेख प्रमुख है। वह मेवाड़ के कोषाध्यक्ष होने के साथ ही वीर सेनानी भी थे। उन्होंने अपने भाई ताराचंद के साथ मिलकर मालवा के निकट मुगल अधिकृत क्षेत्र को जमकर लूटा और एक बड़ी धनराशि एकत्रित कर ली।

भामाशाह एवं उनके पुरखों ने महाराणा कुम्भा और राणा सांगा के समय से एकत्रित विशाल धनराशि की बड़ी कुशलता से सुरक्षा करी। इस धनराशि का सेना के पुनर्गठन एवं अस्त्र शस्त्रों के क्रय में बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा। सेना के पुनर्गठन के बाद राजपूत सेना ने आसानी से बहुत से मुगल थानों पर अधिकार कर लिया। अब राणा प्रताप की नजर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दिवेर के थाने पर थी। शाहबाज खाँ ने यहाँ पर अकबर के चाचा सुलतान खाँ को थानेदार नियुक्त किया था और उसकी सुरक्षा हेतु एक बड़ी सेना वहाँ छोड़ दी।

सुलतान खाँ अपनी ताकत के नशे में चैन की बंसी बजा रहा था तभी उसे खबर मिली कि राणा प्रताप खुद एक बड़ी सेना लेकर दिवेर की तरफ बढ़ रहे हैं। वह तुरंत अपनी सेना को हरकत में लाया और राजपूत सेना पर आक्रमण कर दिया। राजपूत थोड़ा पीछे हट कर सुरक्षित मोर्चों पर लौट आए और मुगल सेना पर पूरी शक्ति से प्रहार कर दिया। यह हल्दीघाटी का उपयुक्त जवाब था। मुगलों के पैर उखड़ने लगे और रही सही कसर अमरसिंह ने पूरी कर दी। उसने सुलतान खाँ पर अपने भाले से इतना बलपूर्वक प्रहार किया कि उसका भाला सुलतान खाँ के कवच को भेदता हुआ उसके शरीर को पार कर घोड़े के शरीर में जा धँसा। घोड़ा और सवार वहीं धराशायी हो गये। यह देख मुगल सैनिकों के हौसले पस्त हो गये। दिवेर के थाने पर राणा प्रताप का अधिकार हो गया।

आलेख क्रमांक 17…

राणा प्रताप के बारे में एक कहानी बहुत प्रचलित है जिसके अनुसार उन्हें मुगलों की गिरफ्त से बचने के लिए जंगलों में भटकना पड़ा। संसाधनों के अभाव में उनके परिवार के खाने के लाले पड़ गये और कुछ नहीं मिलने पर उन लोगों ने घास की रोटी खानी शुरू कर दी। एक दिन महारानी ने इसी तरह घास की रोटियाँ बनाकर सब बच्चों को दे दीं। राणा प्रताप की बेटी ने एक कौर ही खाया था कि एक जंगली बिलाव सामने आ गया और उसकी रोटी छीनकर भाग गया। इस घटना से दुखी होकर बच्ची बहुत रोयी। कन्या का दुख देखकर राणा प्रताप से नहीं रहा गया और उन्होंने अकबर को संधि पत्र लिखने का मन बना लिया।

यथार्थ पर दृष्टि डाले तो यह कहानी अतिश्योक्तिपूर्ण कपोल कल्पना ही जान पड़ती है। महाराणा प्रताप को कभी भी ऐसी कोई आपत्ति नहीं सहनी पड़ी थी। एक तो उनके कोई बेटी थी ही नहीं, तो फिर उसकी घास की रोटी बिलाव छीनकर कैसे ले जा सकता था? ऊपर से घास की रोटी कैसे बनती है, और क्या बिलाव उसे पसंद करता है ??

अगर महाराणा प्रताप के संसाधनों की बात करें तो , उत्तर में कुम्भलगढ़ से लगाकर दक्षिण में ऋषभदेव के आगे तक लगभग 90 मील, और पूर्व में देबारी से लगाकर पश्चिम में सिरोही की सीमा तक 70 मील का पहाड़ी क्षेत्र उनके अधिकार में हमेशा रहा। वह अपने सरदारों सहित इस विस्तृत पहाड़ी क्षेत्र में निडरता से वास करते थे। इन पर्वतीय वनों में प्रचुर मात्रा में  कन्द मूल और अनाज उत्पन्न होते थे। ऐसे में अपने महाराणा के लिए प्राण न्योछावर करने वाले भील क्या उन्हें एवं उनके परिवार को घास की रोटी खाने देते?

स्वामिभक्त एवं वीर प्रकृति के हजारों सैनिक एवं भील युवक उनकी सुरक्षा में सचेत रहते थे। भील युवक बन्दरों की तरह पहाड़ लांघने में निपुण थे, शत्रु सैन्य की हलचल को 40-50 मील तक भाँप लेते थे और कुछ ही घन्टों में उसकी खबर पहुँचा देते थे। इसी से अकबर की सेना ने पहाड़ो में अन्दर तक प्रवेश करने का एक बार भी साहस नहीं किया। जिस पराक्रम से छापामार सैनिक मुगलों से लड़ते थे, उससे पर चलता है कि वे बहुत ह्रष्टपुष्ट और बली रहे होंगे। बिना पर्याप्त भोजन के कोई ह्रष्टपुष्ट नहीं रह सकता। अगर वे सब पर्याप्त भोजन करते थे  तो क्या उनके स्वामी घास की रोटी खाने पर बाध्य होते?

अकबर ने जब शाहबाज खाँ को दूसरी बार महाराणा पर आक्रमण करने भेजा तो उससे कहा था कि यदि तुम इस बार भी असफल रहे तो तुम्हारा सर धड़ से उड़ा दिया जायेगा। जैसा कि अपेक्षित था वह इस आज्ञा का पालन करने में विफल रहा और अंततः निराश होकर बादशाह के पास फतेहपुर लौट आया। यधपि अकबर ने उसकी जान बख्श दी लेकिन उसे बड़ा अपमानित महसूस हुआ।

आलेख क्रमांक 18…

अकबर ने एक बार पुनः अपना भाग्य आजमाने का निर्णय लेते हुए अबकी बार बैरम खाँ के बेटे अब्दुर्रहीम खानखाना को मेवाड़ पर चढ़ाई करने भेजा। खानखाना एक अनुभवी सेनानायक था, उसने गोगून्दा के निकट शेरपुरा को अपना आधार बनाया और राणा प्रताप को परास्त करने की विस्तृत योजना बनाई। लेकिन उसकी रणनीति महाराणा प्रताप के आगे कमजोर साबित हुई। उस पर दोनों और से आक्रमण हुआ – जब राणा प्रताप ने उसे छापामार युद्ध में उलझा लिया, तब उनके पुत्र अमरसिंह ने शेरपुरा पर अचानक आक्रमण कर वहाँ की सारी रसद, शस्त्रागार आदि अपने अधिकार में कर लिए। वह खानखाना पर दबाव बनाने के उद्देश्य से उसके परिवार की बेगमों को भी गिरफ्तार कर लाया। महाराणा प्रताप अपने पुत्र की विजय पर प्रसन्न हुए, पर खानखाना की बेगमों को बंदी बनाने वाली बात उन्हें तनिक भी पसंद नहीं आयी। उन्होंने अमरसिंह को तुरंत आदेश दिया कि इन स्त्रियों को पूरे सम्मान के साथ लौटा दिया जाए। यह एक बहुत बड़ा अंतर था हिन्दू संस्कृति एवं इस्लामिक आक्रमणकारियों के बीच का – एक ओर नारी में माँ के दर्शन (हिन्दू संस्कार) किये जाते थे तो वहीं दूसरी और उसे भोग की वस्तु ( इस्लामिक धर्मान्धता) समझा जाता था। खानखाना महाराणा प्रताप के प्रति आदर मान से कृतज्ञ हो गया, जब अकबर को इस बात का पता चला तो वह महाराणा के व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। उसने खानखाना को धर्मसंकट से बचाते हुए उसे मेवाड़ से वापस लौट आने का निर्देश दे दिया।

अब समय था कछवाहा राजपूतों को सबक सिखाने का – मानसिंह, उसके पिता भगवानदास और चाचा जगन्नाथ कछवाहा ने अकबर के आदेश का अनुसरण करते हुए मेवाड़ को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऊपर से अकबर के हरम में जोधाबाई का डोला भेजकर राणा की नजरों में उन्होंने घोर अपराध किया था, अब उसका दंड भोगने एवं राणा प्रताप के प्रतिशोध का अवसर था। महाराणा प्रताप की सेना ने पूरी शक्ति के साथ आमेर के क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया। जिस अकबर के बल का दम्भ कछवाहा राजपूत भरा करते थे वह काम नहीं आया, उसकी मुगल सेना अन्य स्थानों पर हो रहे विद्रोहों में व्यस्त थी। महाराणा प्रताप की सेना ने मालपुरे को लूटने के बाद पूरी तरह नष्ट कर दिया – इन निर्लज्जों को पता तो चले कि विनाश-लीला की पीड़ा क्या होती है। नियति का दुर्भाग्य ही कहूँगा की ये लोभी, कायर और मूर्ख कछवाहा मेवाड़ का साथ छोड़ अकबर की शरण मे जा बैठे।

विपरीत परिस्थितियों के चलते अब अकबर के लिए महाराणा से और अधिक उलझे रहना सम्भव नहीं रहा। उसने अब आगे और कोई चढ़ाई नहीं करी।  महाराणा प्रताप ने सन 1586 तक चितौड़ एवं मांडलगढ़ को छोड़ सारे मेवाड़ को अपने अधिकार में कर लिया। एक समय मुगलों के अधीन हो गये थानो एवं किलों को महाराणा प्रताप ने पुनः स्वतंत्र करवा लिया। अपने पिता की राजधानी उदयपुर पर अधीकार कर लेने के बाद भी महाराणा ने चावण्ड को ही अपनी राजधानी बनाये रखा। उन्होंने उजड़े हुए प्रदेशों को आबाद करने के लिए राजकोष का उदारता से उपयोग किया। किसानों को नये पट्टे दिये गये, जल आपूर्ति के लिये कुँए और बावड़ियाँ बनवाई गयीं, मंदिरों और भवनों का निर्माण किया गया, कला और साहित्य को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। इन सबके साथ ही राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को भी सुदृढ़ किया गया। धीरे-धीरे मेवाड़ की खोई हुई खुशहाली लौटने लगी।

आलेख क्रमांक 19…

महाराणा प्रताप ने चावंड में रहते हुए लगभग ग्यारह वर्षों तक नवनिर्मित मेवाड़ पर शासन किया। यद्यपि उनकी उम्र ढलने लगी थी, पर शिकार का शौक बरकरार रहा। एक दिन शेर का शिकार करते समय उन्होंने बड़े जोर से कमान खींची, जिससे उनकी आँत में  व्याधि उत्पन्न हो गयी। राजवैधों ने बहुत यत्न किये, लेकिन उनकी दशा बिगड़ती चली गयी। ईश्वर की माया अपार है, जो महावीर बड़े बड़े युद्धों में स्वयं लड़ा लेकिन कभी गम्भीर रूप से घायल नहीं हुआ, जिसने अपनी तलवार से अनेकों योद्धाओं को मृत्युशैया पर सुला दिया, वह तीर कमान खींचने से मरणावस्था में जा पहुंचा।

19 जनवरी, 1597 को इतवार का दिन था। महाराणा प्रताप बहुत विचलित अवस्था में थे, मन और शरीर दोनों कष्ट में थे। उनकी यह अवस्था देख सभी सरदार बहुत दुखी थे, अंत में उन्होंने साहस कर महाराणा प्रताप से पूछा – “है मेवाड़ के शिरोमणि, है अन्नदाता, क्या कारण है कि आप इतने विचलित हैं? आपके प्राण संतोष के साथ इस देह को क्यों नहीं त्यागते?”

महाराणा प्रताप का उत्तर था – “मैं अपने पुत्र अमरसिंह का स्वभाव जानता हूँ, वह कुछ आराम-पसंद है, पता नहीं कि वह आपत्ति सहकर देश और वंश के गौरव की रक्षा कर सकेगा या नहीं। यदि आप सब लोग मेरे पीछे मेवाड़ के गौरव की रक्षा करने का प्रण करें तो मेरी आत्मा अवश्य ही शान्ति के साथ इस देह को छोड़ सकती है“।

इस पर सरदारों ने बापा रावल की गद्दी की शपथ लेकर मेवाड़ के गौरव की रक्षा करने की प्रतिज्ञा की, जिससे महाराणा को संतोष हो गया और उनका प्राणपक्षी शान्तिपूर्वक महाप्रयाण कर गया। मेवाड़ को पराधीनता के अंधकार से निकालकर स्वतंत्रता के प्रकाश में लानेवाला जीवनदीप बुझ गया। सारा मेवाड़ शोक में डूब गया, उनका अनमोल रत्न आज सदा के लिए उनसे बिछड़ गया था।

आलेख क्रमांक 20…

अपने प्राण त्यागते समय भी महाराणा प्रताप को एक ही चिंता थी कि मेवाड़ के गौरव पर कोई आँच नहीं आनी चाहिए। सभी सरदारों के वचन देने के बाद ही उन्होंने देह त्यागी। धन्य है मेवाड़ की भूमि जहाँ ऐसे शूरवीर ने जन्म लिया। उन्होंने न अपने घोड़ों को दाग लगने दिया (अकबर ने घोड़ो की पीठ पर दाग लगाने की प्रथा अपने राज्य में प्रचलित की थी जिसके तहत उसके अधीन सभी राजाओं के घोड़ों पर दाग/चिन्ह लगाया जाता था जिसको देख कर यह ज्ञात हो जाये कि यह घोड़ा बादशाह के सेवक का है), न ही अपनी पगड़ी किसी के आगे झुकने दी और न ही अन्य राजाओं की भांति शाही हरम में अपनी बहन बेटियों का सौदा किया।

महाराणा प्रताप स्वदेशाभिमानी, स्वतन्त्रता के पुजारी, रण-कुशल, स्वार्थत्यागी, नीतिज्ञ, दृढ़ प्रतिज्ञ, परम वीर और उदार क्षत्रिय थे। उनका आदर्श था कि बापा रावल का वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकायेगा। उनका कहना था कि यदि महाराणा सांगा और मेरे बीच कोई और न होता तो चितौड़ कभी मुसलमानों के हाथ न जाता। उनके जीवन से हम स्वदेशप्रेम और कर्तव्यपरायणता का पाठ सीख सकते हैं।

महाराणा का यशवर्णन (आढा दुरसा की लिखी कुछ पंक्तियाँ):

लोपै हिंदू ताज, सगपण रोपे तुरक सूं।

आरजकुल री आज, पूंजी राणा प्रतापसी।।

आशय – हिन्दू राजा कुल की लज्जा को छोड़कर यवनों से सम्बन्ध जोड़ते हैं, अतएव अब तो आर्यकुल की सम्पत्ति राणा प्रतापसिंह ही है।

अकबर समंद अथाह, तिन्ह डूबा हिंदू तुरक।

मेवाड़ों तिण मांह, पोयण फूल प्रतापसी।।

आशय – अकबर रूपी अथाह समुद्र में हिन्दू और मुसलमान सब डूब गये, परन्तु मेवाड़ का स्वामी प्रतापसिंह कमल के पुष्प के समान ऊपर ही शोभा दे रहा है।

अन्त में महाराणा प्रताप की गौरवगाथा मैं इन पंक्तियों के साथ यहीं पर समाप्त कर रहा हूँ –

तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित।

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।।

                                                                                                         लेखन – महेश श्रीमाली

संपादक - मृत्युंजय गुहा मजूमदार (मुख्य संपादक, बंगाल क्रान्इकॅल) 


भामाशाह का आग्रह


बेगम खानखाना, अमरसिंह एवं राणा प्रताप


राणा प्रताप का मानसिंह पर प्रहार

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